Friday, February 10, 2017

कुछ अशआर

माँ न जगाती तो सो रहा होता
इल्म रात पी जाती मैं रो रहा होता                       

वालियों, फकीरों पीरों की हर बात पे सदके जाता हूँ
मुझसे भी मोहोबत करता ग़र तुझ को भी इन पे ऐतबार होता                       

ख्वाब में आके तू रोज़ इश्क़ का इज़हार करती है
पैकर ये ख्वाब उजाले करते गर अंधेरों से लड़ने का हौसला होता                       

कितना अजब है ये रिश्ता तेरा मेरा भी
तकरार रोज़ हो लेकिन ये इश्क़ कम नहीं होता                       

मुझ गुनाहे-सराबोर पर कैसा ये करम है तेरा
नूरो-जमाल से तेरे मेरा वजूद मैला नहीं होता